Tuesday, March 30, 2010

हम और हमारा समाज

    कितने मतलबी है न हम इंसान ? किसी की परेशानी किसी के दुःख से हमे क्या लेना देना . हमको मतलब है तो सिर्फ अपने आप से और कभी-कभी अपने परिवार से भी ... पर आज हम अवश्य यह नहीं कह सकते की हमको अपने परिवार की भी उतनी ही चिंता है जितनी अपनी . क्यों ? क्यूंकि हम खुद ही नहीं जानते हम क्या कर रहे है क्यों कर रहे है किसके लिए कर रहे है ... जिस समाज में हम रह रहे है उस समाज में और भी लोग है जो अलग-अलग स्थिति में रह रहे है. पर हम यकीनन यह कह सकते है कि भाई जो हम कर रहे है अपने लिए कर रहे है और इन लोगों का कहना तो यह है पहले हम अपने लिए तो कर ले , अपने परिवार के लिए तो कर ले फिर दूसरे के लिए सोच लेंगे . यह कह कर सब कन्नी काट जाते है " चलो पीछा छुटा, पता नहीं लोगो को हमसे क्या परेशानी है . लगता है सब हमसे जलते है, हमारा सुकून लोगो को गवारा नहीं लगता ."

      आज हर इंसान जब घर लेने कि सोचता है तो सबसे पहले यह दिमाग में घूमता रहता है जहाँ भी हम घर ख़रीदे वो एक अच्छे area में हो , ताकि हमारे बच्चे हमारा परिवार अच्छे लोगो के साथ उठे-बैठे . लाज़मी है कि क्यों हम किसी गंदे बदबूदार वातावरण में रहे. हम अच्छे कपड़े पहनते है अच्छे बन कर रहते है तो क्यों हमारे बच्चे किसी ऐसे बच्चे के साथ खेले जिसको नंगे पाँव गलियो में घुमने कि आदत हो , मिटटी में खेलना अच्छा माने. बस हमे तो रहना है बड़े ठाठ से .
   
अब अगर में आपसे पूछु के आप अमीर घर के बच्चे और गरीब घर के बच्चे क्या अलग-अलग रूप में जन्मे होते है . क्या गरीब घर का ही छोटा नन्हा बच्चा गन्दा,बिना कपड़े पहने घूमता है .क्या अमीर घर के बच्चे कभी अपने कपड़ो पर खाना नहीं गिराते या खाते-खाते अपना चेहरा गन्दा नहीं करते , क्या अमीर घर के बच्चे चुपके से मिटटी नहीं खाते ? दोनो ही बच्चे वो सामान हरकते करते है जो देखी जाती है , फर्क इतना है पैदा होते ही बच्चे के नाम के साथ अमीर गरीब का ठप्पा लग जाता है . इस ज़िन्दगी में दिन फिरते देर नही लगती , किस्मत हमारी सोच से कई गुना आगे भागती है और हम बैठे ही रह जाते है .

          मिटटी के बर्तन बनाने वाले , हस्तशिल्प , बुनकर यह सब बनाने वाले वही गरीब लोग और उनके घर काम करने वाले बच्चे होते है ,जिन्हें आप कुछ नहीं समझते . बड़ी-बड़ी मीलो में काम करने वाले कुछ लोग बहुत गरीब भी होते है जो आपके लिए एक-एक धागे से पूरी साड़ी , कपड़ा बना कर तैयार कर देते है . मैं यह मानती हूँ कि आज आदमी की जगह मशीनों ने ले ली है पर उन मशीनों को चलाने वाला इंसान ही है . चलिए यह भी छोड़िये कि हर मशीन को चलाने वाला गरीब ही होगा पर आज बहुत-सी कलाकृतिया \   संस्कृति ऐसी है जो गरीबो ने संभाल कर रखी हुई है  . आज भी हमे उस डुगडुगी कि आवाज़ अच्छी लगती है जब गली से गुज़रता हुआ एक आदमी हाथ में एक डोरी से उस खिलोने को सड़क पर चलाता हुआ लाता है ,अपने सर पर टोकरी ले कर चलता है जिसमे तरह तरह के हाथ के बने हुए खिलोने होते है जिसे आज भी बच्चे खूब पसंद करते है चाहे वो अमीर हो या गरीब .



   यही बच्चे जिसको आप गरीब कहते है सब से ज्यादा अपने घर के काम में भी वही बच्चे  हाथ बंटाते है . छोटे छोटे से यह बच्चे जिन्हें  किताबे ले कर चलना चाहिए आज हाथ में हतोड़ी छैनी ले कर धातु के टुकड़े पर डिजाईन बनाते नज़र आते है या कुछ और काम करते नज़र आते है. क्या यह अपना बचपन नही खो रहे ?परिवार के हालात से मजबूर ये नन्हे अपना बचपन खो , परिवार के सुख दुःख में साथ देते है. क्या इन बच्चो को अपना बचपन, खेल- कूद प्यारा नहीं ?




     


यह छोटा बच्चा जो मिटटी में खेल कर आता है  .... देखिये इनके चेहरे कि हंसी...





क्या इसकी मुस्कराहट यह ज़ाहिर कर रही है की ये किस परिवार का बच्चा है ?



 
   


        बचपन में ही यह अमीर गरीब कि बातें सीखाने वाले घर वालो को सही गलत सीखाना चाहिए . आज बड़े होने के बाद भी हमारे मन में एक छवि बन जाती है कि गरीब लोगो से दूरी रखनी चाहिए . हमे अपने आस पास उन लोगो का भी ध्यान रखना चाहिए जो उन चीजों के जरूरतमंद है जो हमारे लिए अनुपयोगी है , हमे उनका साथ देना चाहिए . आज आप उस जगह ज्यादा देर नहीं रह सकते जहाँ काफी गंदगी है मच्छर है और बहुत से लोग उस बस्ती में रह रहे है सो रहे है जहाँ उन्हें इस परेशानियो का रोज़ सामना करना पड़ रहा है .  लोगो के पास पैसा नहीं है , काम धंधा नहीं है . अपनी आजीविका कमाने के लिए अपने बच्चो से मजदूरी करवाते है जो कानूनी जुर्म है . पर यह लोग भी क्या करे सरकार अपने  order जारी कर देती है पर उस पर काम करने कि जिम्मेदारी कोई नहीं उठाना चाहता . क्यों करे कोई , जैसा कि मैंने पहले ही कहा सबको बस अपने से मतलब है सिर्फ अपने से ...  .

    परिवार के हालात से मजबूर ये नन्हे अपना बचपन खो , परिवार के सुख दुःख में साथ देते है. क्या इन बच्चो को अपना बचपन, खेल- कूद प्यारा नहीं. छोटे-छोटे बच्चे जिन्हें जिम्मेदारी का मतलब नहीं पता होता वो अपने माता-पिता के साथ मजदूरी करते नज़र आते है क्यूंकि "अगर वो कमाएंगे नही तो खायेंगे क्या "? इस बच्चो के सामने सिर्फ एक यही सवाल रखा जाता है . परिवार में कोई पढ़ा- लिखा नहीं होता ना इन लोगो को परिवार नियोजन का कुछ ज्ञान होता है ना बच्चो के भविष्य का कुछ अता पता . सरकार नए-नए कार्यक्रम लाती है पर उनको समझाने वाला कोई नहीं होता क्यूंकि कौन slum area में जा कर कैंप लगाये जिससे यह लोग जागरूक हो . एक परिवार में 5 -6 बच्चे जिनके भविष्य का छोड़िये उनके खाने तक का नहीं पता . सुबह का निवाला हलक से उतर तो गया पर रात का कुछ  नहीं पता . ऐसे में घर के छोटे-छोटे नन्हे बच्चे मजदूरी करते नज़र आते है और इसमें किस की गलती है ? परिवार के मुखिया की या उस सरकार की जो जागरूक करने के कार्यक्रम को सही ढंग से पूरा नहीं करती . आज जगह-जगह banner खड़े तो कर दिए पर उसे पढने के लिए एक पढ़ा-लिखा होना जरुरी है . ऐसे में बच्चे बचपन नहीं खोएंगे तो क्या करेंगे .



      और हम पढ़े लिखे लोग भी कुछ नहीं करते .... समझाना तो दूर ऐसी बस्तियों में पैर रखना जरुरी नहीं समझते सिर्फ इसलिए क्यूंकि इससे हमे क्या ... पहले हम अपने लिए तो सोच ले फिर दूसरे के लिए . हमारा समाज हम जैसे लोगो से ही है ,हम इसे नहीं सुधारेंगे तो कितनी ही अच्छी जगह रह लो ऐसे समाज का सामना कहीं न कहीं करना ही पड़ जायेगा ....
 
          
 
Sushmita....

1 comment:

  1. $
    SuSh..i must say ..
    this is one of the fines article you have written...
    absolutly brilliant...

    keep up the good work..
    Good Luck...

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